Thursday 6 October 2011

    अब और भला क्या बयां करूँ

एक  लहर  हो  तुम  सागर  सतह  पर  आशाओं  की .
एक  दवा  हो  तुम  दिल के घाव  की  पट्टी  पर  निराशाओं  की .
एक  धड़कन  हो  तुम  ह्रदय  की  चलती  श्वास  की .
एक  किरण  हो  तुम  अस्थिर  संसार  में  विश्वास  की .
एक  फुहार  हो  तुम  पिच्कारिओं  के  रंग  की .
एक  उपमा  हो  तुम  पुष्प  के  खिलते  हुए  अंग  की .
दिवस  का  अवसान  तुम  हो  रवि  उषा  की  भोर  तुम .
जिस  दिशा  भी  दृष्टि  फेरो  प्रकृति  में  चहुँ  और  तुम .
विहग  का  ही  नीड़  तुम  हो  ब्रह्म  का  आकाश  भी .
आरम्भ  का  ही  सत्य  तुम  हो  अंत  का  आभास  भी .
अब  सकल  ब्रह्माण्ड  छोड़  झाँक  बैठा  खुद  को  कभी .
गहन  सागर  में  मोती  दिखे  मै  ठिठका  तभी .
न  ही  गुड़हल  न  गुलाब  न  ही  सौंदर्य  वो  सरोज  में .
वो  छवि  तुम  में  दिखी  मै  रहा  जिसकी  खोज  में ........

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